मिलों में, मंडियों में
खेतों में
घिसटता हुआ
लुढ़कता हुआ
पहुँच रहा हूँ
पेट की शर्तों पर
हमारे संविधान में
पेट का ज़िक्र कहीं नहीं हैं
संविधान में बस
मुँह और टाँगें हैं
कभी मैं सोचता हूँ
1975 में जब तोड़ी गई थी
नाक संविधान की
उसी हादसे में
शायद मर गया हो संविधान
राशन-कार्ड हाथ में लिए
लाइनों में खड़े-खड़े
मैंने बहुत बार सोचना चाहा है
देश के बारे में,
देश के लोगों के बारे में
पर मेरे सामने
तपेदिक से खाँसते हुए
पिता का चित्र
घूम गया है
मैं जब भी कहीं
झंडा लहराता देखता हूँ
सोचने लगता हूँ
कितने झंडों के
कपड़ों को
जोड़कर
मेरी माँ की साड़ी
बन सकती है
ये सोचकर मैं
शर्मिन्दा होता हूँ
और चाहता हूँ
कि देश पिता हो जाए
मेरे सिर पर हाथ रखे
और मैं उसके सामने
फूट-फूटकर रोऊँ
मेरे जीवन के सबसे अच्छे दिन
मेरे बचपन के दिन थे
मैंने अपने बचपन के दिनों की यादें
बहुत सहेज कर रखीं हैं
पर मुझे हर वक़्त उनके खोने का डर
लगा रहता है
मैं पूछना चाहता हूँ
क्या हमारे देश में
कोई ऐसा बैंक खुला है,
जहाँ वे लोग
जो पैसा नहीं रख सकते
अपने गुज़रे हुए दिन
जमा कर सके
एकदम सुरक्षित !
Wednesday, December 31, 2014
देश के बारे में / अच्युतानंद मिश्र
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