मुट्ठियाँ मत भींच
तनगू मुट्ठियाँ,
भूल जा सरपंच की धमकी
खड़ी बेपर्द गाली
खींच मांदर गा लगा ले ठुमकियाँ ।
बैल मत ख़ुद को समझ
हैं बैल के दो सींग भी ।
भौंकता वह
मारना मत श्वान वाली डींग भी ।
देखकर तुझको फ़कत
शरमा रही हैं बकरियाँ ।
साँवला यह मेघ-सा तन
स्वेद का सावन झरे ।
पर न कोई गड़गड़ाहट
गाज या बिजली गिरे ।
जबकि रखतीं आग हैं
मृत फास्फोरस हड्डियाँ ।
धान कब
किसने चुराया ?
जबकि तू पहरे पे था ?
चर गए
क्यों ढोर खेती ?
क्या नहीं अहरें पे था ?
तू खुरच कर सो बदन से
प्रश्न की ये चिप्पियाँ ।
Sunday, December 28, 2014
बैल मत ख़ुद को समझ / अनिरुद्ध नीरव
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