बुझा के मुझ में मुझे बे-कराँ बनाता है
वो इक अमल जो शरर को धुआँ बनाता है
न जाने कितनी अज़ीयत से ख़ुद गुज़रता है
ये ज़ख़्म तब कहीं जा कर निशां बनाता है
मैं वो शजर भी कहाँ जो उलझ के सूरज से
मुसाफिरों के लिए साएबाँ बनाता है
तू आसमाँ से कोई बादलों की छत ले आ
बरहना शाख़ पे क्या आशियाँ बनाता है
अजब नसीब सदफ़ का के उस के सीने में
गोहर न होना उसे राइगाँ बनाता है
फ़कत़ मैं रंग ही भरने का काम करता हूँ
ये नक़्श तो कोई दर्द-ए-निहाँ बनाता है
न सोच ‘शाद’ शिकस्ता-परों के बारे में
यही ख़याल-सफ़र को गिराँ बनाता है
Tuesday, December 30, 2014
बुझा के मुझ में मुझे बे-कराँ बनाता है / ख़ुशबीर सिंह 'शाद'
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