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Saturday, December 27, 2014

मजनूँ ने शहर छोड़ा है सहरा भी छोड़ दे / इक़बाल


मजनूँ ने शहर छोड़ा है सहरा भी छोड़ दे
नज़्ज़ारे[1] की हवस हो तो लैला भी छोड़ दे

वाइज़[2] कमाले-तर्क [3] से मिलती है याँ मुराद[4]
दुनिया जो छोड़ दी है तो उबक़ा[5] भी छोड़ दे

तक़लीद[6] की रविश[7] से तो बेहतर है ख़ुदकुशी
रस्ता भी ढूँढ, ख़िज़्र का सौदा [8] भी छोड़ दे

शबनम की तरह फूलों पे रो और चमन से चल
इस बाग़ में क़याम[9] का सौदा भी छोड़ दे

सौदागरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है
ऐ बेख़बर जिज़ा[10] की तमन्ना भी छोड़ दे

अच्छा है दिल के पास रहे पास्बाने-अक़्ल[11]
लेकिन कभी-कभी उसे तन्हा भी छोड़ दे

जीना वो क्या जो हो नफ़्से-ग़ैर[12] पर मदार[13]
शोहरत की ज़िन्दगी का भरोसा भी छोड़ दे

वाइज़[14] सबूत लाए जो मय[15] के जवाज़[16] में
इक़बाल को ये ज़िद है कि पीना भी छोड़ दे

अल्लामा इक़बाल

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