मेरे बहुत दिन नहीं गुज़रे हैं केवल उतने ही जितने
किसी दूसरी राह पर चलना अलाभदायक
कर देते हैं, और मुझे पत्थरों, पहाड़ियों, झरनों से
प्यार है हालाँकि मेरे मन में केवल
खेत आते हैं, सूखे हुए तालाब और परती की
जली हुई दूब जहाँ गाँव में
मेरा बचपन बीता है वहाँ के झोपड़े हैं और
गलियाँ हैं और सारी गन्दगी, मल और मूत्र ।
लेकिन इतिहास कभी गाँवों का बाशिन्दा
नहीं रहा, क्रान्ति हमेशा शहरों से हो कर
गुज़रती रही, मैं कैसे
दूर रहता उस मार्ग से ।
मैं शहर में रहता हूँ, अपने बनाए कष्ट
झेलता हूँ, अगली लड़ाई के क़िस्से
सोचता हूँ, दाने चुगता हूँ गगनचुम्बी अट्टालिकाओं पर
चिड़ियों के छोड़े हुए, किताबें पढ़ता हूँ,
सभाओं में जाता हूँ, प्रदर्शन करता हूँ,
बिना सर फोड़े हुए पुलिस का
जेल चला जाता हूँ ।
Saturday, December 27, 2014
क्रान्ति की प्रतीक्षा-8 / कमलेश
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