पार्क की बेंच का
कोई अंत नहीं है
वह सिर्फ़ टिकी भर है पार्क में
जब कि मौजूदगी है उसकी शहर के बाहर तक
पुल की रोशनियों का
कहीं अंत नहीं हैं
मेरी रातें उनसे भरी हैं
मुझे तो मृत्यु के सामने भी
वे याद आयेंगी
लंबी चोंच वाला छोटा पक्षी कठफोड़वा
मुश्किल से दिखाई पड़ा मुझे
दो-तीन बार
पिछले दस-बारह वर्षों में
वह फिर दिखाई देगा
इस बार थियेटर में
थियेटर का कोई अंत नहीं है
थियेटर किसी एक इमारत का नाम नहीं है।
(1996)
Sunday, December 28, 2014
थियेटर / आलोक धन्वा
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