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Sunday, December 28, 2014

दिन चार ये रहें / अनूप अशेष

दोपहर कछार में रहें
दिन मेरे चार ये रहें।

महुआ की कूँचों से
गेहूँ की बाली तक,
शाम की महकती
करौंदे की डाली तक।
आँगन कचनार के रहें
दिन मेरे चार ये रहें।

सारस के जोड़े
डोलें अपने खेत में,
हंसिए के पाँवों
उपटे निशान रेत में।
बाँहें आभार को गहें
दिन मेरे चार ये रहें।।

छोटी-सी दुनिया
दो-पाँवों का खेलना,
गमछे में धूल भरे
अगिहाने झेलना।
पुटकी को प्यार से गहें
दिन मेरे चार ये रहें।।

अनूप अशेष

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