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Tuesday, December 30, 2014

पानी के बाहर भी / अनूप अशेष

दिन हथकड़ियों के
बेड़ी में पाँव फँसे।।

सुबह-सुबह भी जैसे
काली रात खड़ी,
इस स्वाधीन
समय में
मुर्दा जात बड़ी।

पानी के बाहर भी
कोई जाल कसे।।

छोटों के दिन
बड़े-बड़ों के पेटों के,
भीतर धँसी
सलाखों
बाहर आखेटों के।

चीन्ह-चीन्ह कर मारा
उनके घाव हँसे।।

जिनके शासित हम
भूमंडल के पाखी,
आसमान में उनके
लटकी
अपनों की बैसाखी।

ताक़त की सत्ता में
आदम कहाँ बसे।।
अनूप अशेष

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