पराजित होकर लौटे हुए इन्सान की
कोई कथा नहीं होती है
न कोई क़िस्सा होता है
वह अपने आप में
एक जीता-जागता सवाल
होता है
वह गर्दन झुकाये बैठा रहता है
घर के बाहर
दालान के उस कोने में
जहाँ सुबह-शाम
घर की स्त्रियाँ
फेंकती है घर का सारा कूड़ा-कर्कट
उसे न भूख लगती
न प्यास लगती है
वह न जीता है
न मरता है
जिए तो मालिक की मौज
मरे तो मालिक का शुक्रिया
वह चादर के अनुपात से बाहर
फैलाए गए पाँवों की तरह होता है
जिसकी सज़ा भोगते हैं पाँव ही ।
Sunday, December 28, 2014
पराजित होकर लौटा हुआ इन्सान / अरविन्द कुमार खेड़े
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments :
Post a Comment