Pages

Saturday, December 27, 2014

इक्कीसवीं सदी की सुबह / उत्पल बैनर्जी

कालचक्र में फँसी पृथ्वी
तब भी रहेगी वैसी की वैसी
अपने ध्रुवों और अक्षांशों पर
वैसी ही अवसन्न और आक्रान्त!

धूसर गलियाँ
अहिंसा सिखाते हत्यारे
असीम कमीनेपन के साथ मुस्कराते
निर्लज्ज भद्रजन,
असमय की धूप और अंधड़...
कुछ भी नहीं बदलेगा!
किसी चमत्कार की तरह नहीं आएंगे देवदूत
अकस्मात हम नहीं पहुँच सकेंगे
किसी स्वर्णिम भविष्य में
सत्ताधीशों के लाख आश्वासनों के बावजूद!

पृथ्वी रहेगी वैसी की वैसी!

रहेंगी --
पतियों से तंग आती स्त्रियाँ
फतवे मूर्खता और गणिकाएँ
बनी रहेंगी बाढ़ और अकाल की समस्याएँ
मठाधीशों की गर्वोक्तियाँ
और कभी पूरी न हो सकने वाली उम्मीदें
शिकायतें... सन्ताप...

बचे रहेंगे --
चीकट भक्ति से भयातुर देवता
सांस्कृतिक चिन्ताओं से त्रस्त
भाण्ड और मसखरे
उदरशूल से हाहाकार करते कर्मचारी!
रह जाएगा --
ज़िन्दगी से बाहर कर दी गईं
बूढ़ी औरतों का दारुण विलाप
एक-दूसरे पर लिखी गईं व्यंग्य-वार्ताओं का टुच्चापन
और विलम्वित रेलगाड़ियों का
अवसाद भरा कोरस...

तिथियों के बदलने से नहीं बदलेंगी आदतें
चेहरे बदलेंगे... रंग-रोग़न बदल जाएगा

सोचो लोगो!
आज इक्कीसवीं सदी की पहली सुबह
क्या तुम ठीक-ठीक कह सकते हो
कि हम किस सदी में जी रहे हैं?

उत्पल बैनर्जी

0 comments :

Post a Comment