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Wednesday, December 24, 2014

ज़ख्म ऐसा जिसे खाने को मचल जाओगे / कविता किरण

ज़ख्म ऐसा जिसे खाने को मचल जाओगे
इश्क की राहगुज़र पे न संभल पाओगे

मैं अँधेरा सही सूरज को है देखा बरसों
मेरी आँखों में अगर झांकोगे जल जाओगे

मैंने माना कि हो पहुंचे हुए फनकार मगर
एक दिन मेरी किताबों से ग़ज़ल गाओगे

इतना कमसिन है मेरे नगमों का ये ताजमहल
तुम भी देखोगे तो ऐ दोस्त! मचल जाओगे

ऐ 'किरण' चाँद से कह दो कि न इतरो इतना
रात-भर चमकोगे कल सुबह तो ढल जाओगे

कविता "किरण"

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