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Thursday, December 25, 2014

यह समय झरता हुआ / ओम प्रभाकर

उफ़, यह समय

झरता हुआ।


कल के बेडौल हाथों
हुए ख़ुद से त्रस्त।


कहीं कोई है

कि हममें कँपकँपी भरता हुआ।


बनते हुए ही टूटते हैं हम
पठारी नदी के तट से।
हम विवश हैं फोड़ने को
माथ अपना निजी चौखट से।


एक कोई है

हमें हर क्षण ग़लत करता हुआ।
ओम प्रभाकर

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