लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना[1] तेरे शहर में ।
फिर बनेंगी मस्जिदें मयख़ाना तेरे शहर में ।
आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँ
आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में ।
जुर्म है तेरी गली से सर झुकाकर लौटना
कुफ़्र[2] है पथराव से घबराना तेरे शहर में ।
शाहनामे[3] लिक्खे हैं खंडरात की हर ईंट पर
हर जगह है दफ़्न इक अफ़साना तेरे शहर में ।
कुछ कनीज़ें[4] जो हरीमे-नाज़[5] में हैं बारयाब[6]
माँगती हैं जानो-दिल नज़्राना तेरे शहर में ।
नंगी सड़कों पर भटककर देख, जब मरती है रात
रेंगता है हर तरफ़ वीराना तेरे शहर में ।
Sunday, March 30, 2014
लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में / कैफ़ी आज़मी
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments :
Post a Comment