इतना बतला के मुझे हरजाई हूँ मैं यार कि तू
मैं हर इक शख्स से रखता हूँ सरोकार के तू
कम-सबाती मेरी हरदम है मुखातिब ब-हबाब
देखें तो पहले हम उस बहर से हों पार के तू
ना-तवानी मेरी गुलशन में ये ही बहसें है
देखें ऐ निकहत-ए-गुल हम हैं सुबुक-बार के तू
दोस्ती कर के जो दुश्मन हुआ तू ‘जुरअत’ का
बे-वफा वो है फिर ऐ शोख सितम-गार के तू
Monday, March 31, 2014
इतना बतला के मुझे हरजाई हूँ मैं यार कि तू / क़लंदर बख़्श 'ज़ुरअत'
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