मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता
कुछ भी करते हुए
कहीं और भी होना
धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है
हर वक़्त बस वहीं होना
जहाँ कुछ कर रहा हूँ
एक तरह की कम-समझी है
जो मुझे सीमित करती है
ज़िन्दगी बेहद जगह मांगती है
फैलने के लिए
इसे फैसले को ज़रूरी समझता हूँ
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें...
Wednesday, March 26, 2014
मैं कहीं और भी होता हूँ / कुंवर नारायण
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments :
Post a Comment