शायद मेरी निगाह में कोई शिगाफ़ था
वरना उदास रात का चेहरा तो साफ़ था
इक लाश तैरती रही बर्फ़ीली झील में
झूठी तसल्लियों का अमीं ज़ेर-ए-नाफ़ था
बोसों की राख में थे सुलगते शरार-ए-लम्स
चेहरे की सिलवटों में कोई इंकिशाफ़ था
दोज़ख के गिर्द गूँगें फ़रिश्ते थे महव-ए-रक़्स
और पिस्लियों की टीस पे मिला गिलाफ़ था
खिड़की से झाँकता हुआ वो पुर-ग़ुरूर सर
ताज़ा हवा से उस का कोई इख़्तिलाफ़ था
रस्ते फ़रार के सभी मसदूद तो न थे
अपनी शिकस्त का मुझे क्यूँ एतराफ़ था
Saturday, March 29, 2014
शायद मेरी निगाह में कोई शिगाफ़ था / अशअर नजमी
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