वो जो आ जाते थे आँखों में सितारे लेकर
जाने किस देस गए ख़्वाब हमारे लेकर
छाओं में बैठने वाले ही तो सबसे पहले
पेड़ गिरता है तो आ जाते हैं आरे लेकर
वो जो आसूदा-ए-साहिल हैं इन्हें क्या मालूम
अब के मौज आई तो पलटेगी किनारे लेकर
ऐसा लगता है के हर मौसम-ए-हिज्राँ में बहार
होंठ रख देती है शाख़ों पे तुम्हारे लेकर
शहर वालों को कहाँ याद है वो ख़्वाब फ़रोश
फिरता रहता था जो गलियों में गुब्बारे लेकर
नक़्द-ए-जान सर्फ़ हुआ क़ुल्फ़त-ए-हस्ती में 'फ़राज़'
अब जो ज़िन्दा हैं तो कुछ सांस उधारे लेकर
Saturday, March 29, 2014
वो जो आ जाते थे आँखों में सितारे लेकर / फ़राज़
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