नज़र की चोट अब दिल पर अयाँ मालूम होती है
कहाँ चमकी थी ये बिजली कहाँ मालूम होती है
कभी ख़ानदाँ कभी गिर्या-कुनाँ मालूम होती है
मोहब्बत इम्तिहाँ दर इम्तिहाँ मालूम होती है
बईं गुलशन-परस्ती उस का हक़ है मौसम-ए-गुल पर
जिसे बिजली चराग़-ए-आशियाँ मालूम होती है
मोहब्बत को तअय्युन की हदों में ढूँढने वालो
मोहब्बत माँ-वारा-ए-दो-जहाँ मालूम होती है
यहाँ अब तक ग़म-ए-दिल की नज़ाकत आ गई ‘उनवाँ’
निगाह-ए-लुत्फ़ भी दिल पर गिराँ मालूम होती है
Saturday, March 29, 2014
नज़र की चोट अब दिल पर अयाँ मालूम होती है / 'उनवान' चिश्ती
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