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Sunday, March 30, 2014

सियाराम / कैलाश गौतम

सियाराम का मन रमता है नाती-पोतों में
नहीं भागता मेले-ठेले बागों-खेतों में

बच्चों के संग सियाराम भी सोते जगते हैं
बच्चों में रहते हैं हरदम बच्चे लगते हैं

टाफ़ी खाते, बिस्कुट खाते ठंडा पीते हैं
टी.वी. के चैनल से ज्यादा चैनल जीते हैं

घोड़ा बनते इंजन बनते गाल फुलाते हैं
गुब्बारे में हवा फूँकते और उड़ाते हैं

सियाराम की दिनभर की दिनचर्या बदल गई
नहीं कचहरी की चिन्ता, बस आई निकल गई

चश्मे का शीशा फूटा औ’ छतरी टूट गई
भूल गए भगवान सुबह की पूजा छूट गई

कैलाश गौतम

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