भाइयों! बहनों!!
मातृ-पितृ गण
दादाओं! चाचाओं!!
बेटे-बेटियों
थोड़ी मेरी मदद करो.....
एक नारी हूँ मैं
मेरे पास
दया भी है, ममता भी
प्यार भी है
एहसास भी
मगर ज्यों लिखना चाहती हूँ
एक प्रेम भरी कविता;
ये मेरी कलम पता नहीं क्यों
आग उगलने लगती है.
कलमें बदल कर देख लीं
स्याहियों के रंग बदल लिए
कागजों को भी देख लिया
बदल-बदल के
बैठाने की जगह बदलने की भी
कोशिश कर ली
घर, कमरे, पार्क, छत
ट्रेन, आफिस, बसें
मगर नहीं बदल सकी मैं
कविताओं में आग उगलने की आदत
क्या करूँ?
सच कहूँ
मैं लिखना चाहती हूँ
एक प्रेम भरी कविता
जिसमें स्वर्ग का अक्स हो
फूलों की महक हो
शब्द प्रेम उड़ेलें
मात्राएँ ममता बिखेरें
पर कैसे...?
Friday, March 28, 2014
मेरी मदद करो / अलका सर्वत मिश्रा
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