कभी ख़ुश भी किया है दिल किसी रिन्दे-शराबी का
भिड़ा दे मुँह से मुँह साक़ी हमारा और गुलाबी का
छिपे हरगिज़ न मिस्ल-ए-बू वो पर्दों में छिपाए से
मज़ा पड़ता है जिस गुल पैरहन को बे-हिजाबी का
शरर-ओ-बर्क़ की-सी भी नहीं याँ फ़ुर्सते-हस्ती
फ़लक़ ने हम को सौंपा काम जो कुछ था शताबी का
मैं अपना दर्दे-दिल चाहा कहूँ जिस पास आलम में
बयाँ करने लगा क़िस्सा वो अपनी ही ख़राबी का
ज़माने की न देखी ज़र्रा-रेज़ी ‘दर्द’ कुछ तूने
मिलाया मिस्ले-मीना ख़ाक में ख़ूँ हर शराबी का
Wednesday, November 26, 2014
कभी ख़ुश भी किया है दिल किसी रिन्दे-शराबी का / ख़्वाजा मीर दर्द
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