(ग्राम-बागी के एक वाशिंदे का वक्तव्य)
भाईजी
देख रहे हो जो हरी-भरी फसल
यूँ ही न आई
जंगल थे जंगल
पत्थर ही पत्थर
जब धकेल दिया गया हमें
टिहरी डेम की बेकार टोकरियों की तरह
छूट गए वहीं
बहुत-से अभिन्न
जो सिर्फ नदी-पहाड़ दरत-जंगल
कीट-पखेरू सरीसृप-जंतु खेत-खलिहान
धूप-हवा जमीन-आसमान नहीं
परिवार के सदस्य थे हमारे
वह बोले जा रहा था अनलहक
उसकी भाषा में
कुछ चीटियाँ ढो रही थीं अपने अंडे
और कोशिश थी
एक लहराती कतार में संयत होकर चलने की
वह बोले जा रहा था लगातार -
पत्थर में रहनेवाले हम पत्थरदिल
आन बसे इस ओर
कुरेद कुरेद कर
बटोर बटोर कर पत्थर
बनाए खेत
बसाया घर-संसार पुनः
भाईजी
इधर फिर आई है खबर
पड़ोस की हवाई-पट्टी है यह
आएगी हमारे आँगन तक
फिर खदेड़ा जाएगा हमें कहीं और
फिर जारी है
हमारी सृष्टि से हमें बेदखल करने की तैयारी।
Saturday, November 29, 2014
भानियावाला विस्थापित / कुमार अनुपम
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