मैं अज़ल की शाख से टूटा हुआ
फिर रहा हूँ आज तक भटका हुआ
देखता रहता है मुझको रात दिन
कोई अपने तख़्त पर बैठा हुआ
चाँद तारे दूर पीछे रह गए
मैं कहाँ पर आ गया उड़ता हुआ
बंद खिड़की से हवा आती रही
एक शीशा था कहीं टूटा हुआ
खिडकियों में, कागजों में, मेज़ पर
सारे कमरे में है वो फैला हुआ
अपने माजी का इक समुंदर चाहिए
इक खजाना है यहाँ डूबा हुआ
दोस्तों ने कुछ सबक ऐसे दिए
अपने साये से भी हूँ सहमा हुआ
किसी कि आहट आते आते रुक गयी
किस ने मेरा साँस है रोका हुआ
Sunday, November 30, 2014
मैं अज़ल की शाख से टूटा हुआ / अमजद इस्लाम
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