काग़ज़ की नाव हूँ जिसे तिनका डुबो सके
यूँ भी नहीं कि आप से ये भी न हो सके
बरसात थम चुकी है मगर हर शजर के पास
इतना तो है कि आप का दामन भिगो सके
ऐ चीख़ती हवाओं के सैलाब शुक्रिया
इतना तो हो कि आदमी सूली पे सो सके
दरिया पे बंद बाँध कर रोको जगह जगह
ऐसा न हो कि आदमी जी भर के रो सके
हल्की सी रौशनी के फ़रिश्ते हैं आस-पास
पल्कों में बूँद बूँद जहाँ तक पिरो सके
Friday, November 28, 2014
काग़ज़ की नाव हूँ जिसे तिनका डुबो सके / अहसन यूसुफ़ ज़ई
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