है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूबतर कहाँ
अब ठहरती है देखिये जाकर नज़र कहाँ
या रब! इस इख़्त्लात का अँजाम हो बख़ैर
था उसको हमसे रब्त मगर इस क़दर कहाँ
इक उम्र चाहिये कि गवारा हो नेशे -इश्क़
रक्खी है आज लज़्ज़ते-ज़ख़्मे-जिगर कहाँ
हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझ-से लाख सही , तू मगर कहाँ
Wednesday, November 26, 2014
है जुस्तजू कि ख़ूब से हो ख़ूबतर कहाँ / अल्ताफ़ हुसैन हाली
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