ग़म से बढ़कर खुशी नहीं लगती I
अब कोई शै बुरी नहीं लगती II
चलके अब आइना तलाश करें,
उसमें कोई कमी नहीं लगती I
मेरा साया है मेरे साथ अब तक,
ये तो उसकी गली नहीं लगती I
शायद इसके परे भी हो बस्ती,
ये गली आख़िरी नहीं लगती I
जैसी पहले थी अब भी है फिर क्यूँ,
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं लगती I
सबके दामन सही सलामत हैं,
आशिक़ी आशिक़ी नहीं लगती I
क़त्ल इतना हुआ है सोज़ यहाँ
ख़ुदक़ुशी ख़ुदक़ुशी नहीं लगती II
Sunday, November 30, 2014
ग़म से बढ़कर खुशी नहीं लगती / कांतिमोहन 'सोज़'
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