वो ख़्वाब तलब-गार-ए-तमाशा भी नहीं है
कहते हैं किसी ने उसे देखा भी नहीं है
पहली सी वो खुशबू-ए-तमन्ना भी नहीं है
इस बार कोई खौफ हवा का भी नहीं है
उस चाँद की अँगड़ाई से रौशन हैं दर ओ बाम
जो पर्दा-ए-शब-रंग पे उभरा भी नहीं है
कहते हैं के उठने को है अब रस्म-ए-मोहब्बत
और इस के सिवा कोई तमाशा भी नहीं है
इस शहर की पहचान थीं वो फूल सी आँखें
अब यूँ है के उन आंखों का चर्चा भी नहीं है
क्यूँ बाम पे आवाज़ों का धम्मला है ‘अजमल’
इस घर पे तो आसेब का साया भी नही है
Friday, January 31, 2014
वो ख़्वाब तलब-गार-ए-तमाशा भी नहीं है / कबीर अजमल
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