कुछ न कह कर भी
बहुत कुछ कह डालती हैं
उनमें दिखाई नहीं पड़ती
मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें
फिर भी वे सहेजी जाती हैं
एक अविस्मरणीय दस्तावेज़ के रूप में
ऐसी ही तुम्हारी एक तस्वीर
सहेज रखी है मैंने
मैं चाहती हूँ उभर आएँ उस पर
तुम्हारे मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें
ताकि
तस्वीर की जगह
सहेज सकूँ उन्हें
और
तुम नज़र आओ
उस निश्छल बच्चे की तरह
जिस के मुँह पर
दूध की कुछ बूंदे
अब भी बाक़ी हैं।
Tuesday, January 28, 2014
तस्वीरें / आकांक्षा पारे
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