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Wednesday, January 29, 2014

जाने क्या दुश्मनी है शाम के साथ / 'अना' क़ासमी

जाने क्या दुश्मनी है शाम के साथ
दिल भी टूटा पड़ा है जाम के साथ

लफ़्ज़ होने लगे हैं सफबस्ता[1]
कौन उलझा ख़्याले-ख़ाम[2]के साथ

काम की बात बस नहीं होती
रोज़ मिलते हैं एहतमाम के साथ

कितना टूटा हुआ हूं अन्दर से
फिर कमर झुक गयी सलाम के साथ

बज़्म[3]आगे बढ़े ये नामुमकिन
मुक्तदी[4]उठ गये इमाम[5] के साथ

इन्क़लाब अब नहीं है थमने का
शाहज़ादे भी हैं गुलाम के साथ

बेतकल्लुफ़ बहस हों मकतब[6]में
इल्म घटता है एहतराम के साथ

'अना' क़ासमी

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