वो नदी-सी सदा छलछलाती रही
हम भी प्यासे रहे वो भी प्यासी रही
जुगनुओं को पकड़ने की हसरत लिए
मेरी चाहत यूँ ही छटपटाती रही
मेरी ऑंखों से ख़्वाबों के रिश्ते गए
याद आती रही जी जलाती रही
आज फिर मैं सुबगता रहा रात-भर
चाँदनी तो बहुत खिलखिलाती रही
वो परिन्दे न जाने कहाँ गुम हुए
बस हवा ही हवा फड़फड़ाती रही
वो न आए तो आई नहीं मौत भी
साँस आती रही साँस जाती रही
Sunday, January 26, 2014
वो नदी-सी सदा छलछलाती रही / अज़ीज़ आज़ाद
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