दिन भर
आंखोँ से औझल रही
मासूम स्त्री को
रात के सन्नाटोँ मेँ
... क्योँ करते हैँ याद
ऐ दम्भी पुरुष !
दिन मेँ
खेलते हो
अपनी ताकत से खेल
सूरज को भी
धरती पर उतारने के
देखते हो सपने
ऐसे वक्त
याद भी नहीँ रखते
कौन हैँ पराये
कौन है अपने !
सांझ ढलते ही
क्यो सताती है
तुम्हेँ याद स्त्री की
भयावह रातोँ का
सामने करने को
साहस तुम्हारा
कहां चला जाता है ?
गौर से देखो
तुम्हारे भीतर भी है
एक स्त्री
जो डरती है तुम से
वही चाहती है साथ
सन्नाटोँ मेँ अपनी सखी का !
Wednesday, January 29, 2014
सन्नाटोँ मेँ स्त्री / ओम पुरोहित ‘कागद’
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)
0 comments :
Post a Comment