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Wednesday, January 29, 2014

चिडिय़ाघर में ज़ेबरा की मौत / अनुज लुगुन

चिडिय़ाघर में ज़ेबरे की मौत पर
रोने के लिए कोई और नहीं था
सिवाय उसके एक और साथी जेब्रा के
जिसे रखा गया था उसके साथ
केवल प्रजनन के उद्देश्य से,

वह डर कर दुबका हुआ था एक कोने में
भयानक अकेलेपन और अजनबीपन में
उसकी आँखें देख रही थी फ्लैश-बैक में वह दृश्य
जब वह झुण्ड के झुण्ड अपने दल के साथ
दिन भर चौकड़ी भरा करता था
जहाँ चरने के लिए खुला मैदान था
प्यास मिटाने के लिए उन्मुक्त नदी थी
और एक जंगल था आत्मिक विश्रान्ति के लिए,

अब कुछ भी नहीं रह गया
उनके हिस्से के लिए
उनका हिस्सा भी नहीं रहा
वह जो कभी उनका पूरा होता था
अगर यह सब होता तो शायद
यह न होता जो आज हुआ
अगर होता भी समय के चक्र में
तो ऐसा न होता जो आज हुआ
आज होता सामूहिक शोक
सारा गाँव आख़िरी बार फिर उसके साथ होता
उसके सम्मान में होता एक आख़िरी गीत
कोई उसकी ज़िद से उसे अन्तिम बार पहचानता
कोई उसकी नृत्य शैली से
कोई कहता करमा नाचने में उसका कोई जोड़ नहीं था
तो कोई उसे उसके पुरखों के इतिहास से पहचानता,
यहाँ जुटी भीड़ उसे नहीं पहचानती है
और न ही वह उसके साथी के लिए
शोकगीत में शामिल होगी
यह भीड़ केवल तब तक बेचैन है
जब तक कि वह उसकी तस्वीर न ले ले

मेरा दु:ख ज़ेबरे की मौत से है
और डर चिडिय़ाघर से
चिडिय़ाघर की जमीन फैल रही है और दीवार ऊँची
पिंजरों की संख्या बढ़ाई जा रही है
और वहाँ जंगल में
आदिम जनसंख्या उसके लिए तैयार की जा रही है
म्यूजियम में उसकी खाल, हड्डियाँ
वाद्य यन्त्र, भाषा और उसके गीत सुरक्षित किए जा रहे हैं

चिडिय़ाघर में ज़ेबरे की मौत
केवल ज़ेबरे की मौत नहीं,
हमारी सम्भावित आगामी मौत है ।

अनुज लुगुन

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