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Friday, January 31, 2014

भिखारी / उत्पल बैनर्जी

वहाँ डबडबाती आँखों में
उम्मीद का बियाबान था
किसी विलुप्त होते धीरज की तरह
थरथरा रही थी कातर तरलता
दूर तक अव्यक्त पीड़ा का संसार
बदलते दृश्य-सा फैलता जा रहा था
गहरे अविश्वास और धूसर भरोसे में बुदबुदाते होंठ
पता नहीं प्रार्थना या कि अभिशाप में काँप रहे थे!
ऐश्वर्य को भेदती स्याह खोखल आँखों में
अभियोग के बुझते अंगार की राख उड़ रही थी
कि मानो हम ही इस दुनिया के ठेकेदार हैं
कि हमारी ही वजह से
पश्चिमों से घिर गया है उनका दिनमान
या कि हमीं ने उनकी क़िस्मत को बेवा बना रखा है!

मन ही मन पिण्ड छुड़ाने की तरकीब सोचते
क्षण-भर को अचकचा कर ठिठक गए थे हम
निथर आई करुणा और निर्मम तटस्थता की
दुविधा को सम्हालते हुए पैंतरा बदल चुके थे हम
कि यह अनवरत त्रासदी कहीं ख़त्म नहीं होने वाली
नियति के रक्तबीज भला कभी ख़त्म होते हैं!
एक त्वरित खिन्नता में
कुछ पिघलकर स्थगित हो गई थी सदाशयता!

दूर तक पीछा करती पुकार को अनसुना कर
बढ़ गए थे हम निःसंग रास्ते पर
व्याकुल लहरें तटबंध से टकरा कर
बिखर गई थीं, बिला गई थीं!!

उत्पल बैनर्जी

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