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Tuesday, January 28, 2014

जागो रे मज़दूर किसान / कांतिमोहन 'सोज़'

जागो रे मज़दूर किसान
रात गई अब हुआ विहान
रात गई रे साथी !

किरनों की आहट पाकर कलियों ने आँखें खोलीं
ताक़त नई हवा से पाकर गूंगी लहरें बोलीं
गुन-गुन-गुन सब ओर गूँजता परिवर्तन का गान
रात गई रे साथी !

चलो साथियों चलो कि अपनी मंज़िल बहुत कड़ी है
उधर विजय ताज़ा फूलों की माला लिए खड़ी है
चलो साथियो तुम्हें जगाना पूरा हिन्दुस्तान
रात गई रे साथी !

खोने को हथकड़ियाँ पाने को है दुनिया सारी
चलो साथियो बढ़ो कि होगी अन्तिम विजय हमारी
सर पर कफ़न हथेली पर रख लें अब अपनी जान
रात गई रे साथी !

कांतिमोहन 'सोज़'

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