मंज़िलें दूर हैं पैर मजबूर हैं
साँस उखड़ी हुई दिल में नासूर हैं
फिर भी ज़िन्दा हैं हम उस जहाँ के लिए
उस घड़ी के लिए उस समाँ के लिए ।
कोई भूखा न हो कोई नंगा न हो
बे-दवा बे-कफ़न कोई मरता न हो
बाज़ कोई न हो फ़ाख़्ता के लिए
हम हैं गर्मे -सफ़र उस जहाँ के लिए ।
खून-सा लाल है उसका इक़बाल है
आज तलवार है कल वही ढाल है
सर कटा देंगे हम उस निशाँ के लिए
तायरे-अम्न के आशियाँ के लिए ।
बढ़ रहे क़ाफिले घट रहे फ़ासले
दिल को छोटा न कर हाथ में हाथ ले
ख़ार झेलें नए गुलसिताँ के लिए
अपने ख़्वाबों के हिंदोस्ताँ के लिए ।।
रचनाकाल : अक्तूबर 1979
Thursday, January 30, 2014
मंज़िलें दूर हैं पैर मजबूर हैं / कांतिमोहन 'सोज़'
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