ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल
ये सख़्त-राह भी अब इख़्तियार करता चल
सफ़र की रात है हर गाम एहतियात बरत
पलट पलट के अंधेरों पे वार करता चल
लिए जा काम तू अपनी फ़िराख़-दस्ती से
क़दम क़दम पे मुझे ज़ेर-ए-बार करता चल
इधर उधर जो खड़े हो गए हैं तेरे लिए
उन्हें भी अपने सफ़र में शुमार करता चल
किसी ठिकाने पे तुझ को अगर पहुँचना है
तो नक़्श-ए-पा को मिरे ए‘तिबार करता चल
Wednesday, January 29, 2014
ठहर ठहर के मिरा इंतिज़ार करता चल / ग़ुलाम मुर्तज़ा राही
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