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Saturday, January 25, 2014

दुख फ़साना नहीं के तुझ से कहें / फ़राज़

दुख फ़साना नहीं के तुझसे कहें
दिल भी माना नहीं के तुझसे कहें

आज तक अपनी बेकली का सबब
ख़ुद भी जाना नहीं के तुझसे कहें

बेतरह हाले दिल है और तुझसे
दोस्ताना नहीं के तुझसे कहें

एक तू हर्फ़ आशना था मगर
अब ज़माना नहीं के तुझसे कहें

क़ासिद ! हम फ़क़ीर लोगों का
एक ठिकाना नहीं के तुझसे कहें

ऐ ख़ुदा दर्द-ए-दिल है बख़्शिश-ए-दोस्त
आब-ओ-दाना नहीं के तुझसे कहें

अब तो अपना भी उस गली में ’फ़राज’
आना जाना नहीं के तुझसे कहें

अहमद फ़राज़

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