क़सम इन आँखों की जिन से लहू टपकता है
मेरे जिगर में इक आतिश-कदा दहकता है
गुज़िश्ता काहिश ओ अंदोह के ख़याल ठहर
मेरे दिमाग़ में शोला सा इक भड़कता है
किसी के ऐश-ए-तमन्ना की दास्ताँ न कहो
कलेजा मेरी तमन्नाओं का धड़कता है
इलाज-ए-‘अख़्तर’-ए-ना-काम क्यूँ नहीं मुमकिन
अगर वो जी नहीं सकता तो मर तो सकता है.
Wednesday, January 29, 2014
क़सम इन आँखों की जिन से लहू टपकता है / अख़्तर अंसारी
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