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Saturday, January 25, 2014

वो इत्तेफ़ाक़ से रस्ते में मिल गया था मुझे / अख़्तर अंसारी

वो इत्तफ़ाक़ से रस्ते में मिल गया था मुझे
मैं देखता था उसे और वो देखता था मुझे

अगरचे उसकी नज़र में थी न आशनाई[1]
मैं जानता हूँ कि बरसों से जानता था मुझे

तलाश कर न सका फिर मुझे वहाँ जाकर
ग़लत समझ के जहाँ उसने खो दिया था मुझे

बिखर चुका था अगर मैं, तो क्यों समेटा था
मैं पैरहन[2] था शिकस्ता[3] तो क्यों सिया था मुझे

है मेरा हर्फ़-ए-तमन्ना[4], तेरी नज़र का क़ुसूर
तेरी नज़र ने ही ये हौसला दिया था मुझे

अख़्तर अंसारी

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