नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं,
हम छलनी में पानी भरने निकले हैं।
आँसू पोंछ न पाए अपनी आँखों के
और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं।
पानी बरस रहा है जंगल गीला है,
हम ऐसे मौसम में मरने निकले हैं।
होंठो पर तो कर पाए साकार नहीं,
चित्रों पर मुस्कानें धरने निकले हैं।
पाँव पड़े न जिन पर अब तक सावन के
ऐसी चट्टानों से झरने निकले हैं।
Saturday, January 25, 2014
नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं / कविता किरण
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