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Tuesday, December 23, 2014

विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक अंतिम दस्तावेज़ / कुमार अनुपम

पुरखों की स्मृतियों और आस और अस्थियों
पर थमी थी
घर की ईंट-ईंट

उहापोह और अतृप्ति का कुटुम्ब
वहीं चढ़ाता था अपनी तृष्णा पर सान

एक कबीर
अपनी धमनियों से बुनने की मशक्कत में एक चादर
निर्गुन पुकार में बदल जाता था बारम्बार
कि सपनों की निहंगम देह के बरक्स
छोटा पड़ जाता था हर बार आकार
बावजूद इसके जो था एक घर था :
विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक अंतिम दस्तावेज़

बीसवीं सदी के बिचले वर्षों में
स्मृतियां और स्वप्न जहाँ दिख रहे हैं
सहमत सगोतिया पात्रा
एलबम की तस्वीर है अब मात्रा

फासलों को पाटने की
वैश्विक कार-सेवा में बौख़लाया था
जब सारा जहान
दिखा तभी पहली पहली दफ़ा अतिस्पष्ट
देख कर भी जिसे
किया जाता रहा था अदेखा

शिष्टता के पश्चाताप का छंद...

और दीवारों और स्मृतियों से
एक-एक कर उधड़ गए
बूढ़ी त्वचा के पैबंद
गुमराह आंधियों के ज़ोर से
खुलते ही गये आत्मा के घाव

और
इक्कीसवीं सदी का अवतार हुआ
मध्यवर्गीय इतिहास के अंत के उपरांत

कुछ तालियाँ बजीं कुछ ठहाके गूँजे नेपथ्य से
कुछ जश्न हुए सात समुंदर पार
एक वैश्विक गुंडे ने डकार खारिज की
राहत की सुरक्षित साँस ली
अनावश्यक और बेवज़ह
घटित हुआ
प्रतीक्षित शक
गोया कि घटना कोई
घटती नहीं अचानक
किस्तों में भरी जाती है हींग आत्मघाती
सूखती है धीरे-धीरे-धीरे भीतर की नमी
मंद पड़ता है कोशिकाओं का व्यवहार
धराशाई होता है तब एक चीड़ का छतनार

धीरे-धीरे-धीरे लुप्त होती है एक संस्कृति
एक प्रजाति
षड्यंत्रों के गर्भ में बिला जाती है

ख़ैर! को जुमले की तरह प्रयोग करने से बचता है एक कवि
अपनी चारदीवारी में लौटने से पहले
कि कुटुम्ब की अवधारणा ही अपदस्थ
जब घर की नयी संकल्पना से
ऐसे में
गल्प से अधिक नहीं रह जाता
यह यथार्थ।

कुमार अनुपम

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