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Tuesday, December 16, 2014

हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो / ग़ालिब अयाज़

हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो
अब ये दिल बे-क़रार हो कि न हो

मर्ग-ए-अम्बोह देख आते हैं
आँख फिर अश्क-बार हो कि न हो

कर्ब-ए-पैहम से हो गया पत्थर
अब ये सीना फ़िगार हो कि न हो

फिर यही रूत हो ऐन मुमकिन है
पर तिरा इंतिज़ार हो कि न हो

शाख़-ए-ज़ैतून के अमीं हैं हम
शहर में इंतिशार हो कि न हो

शेर मेरे संभाल कर रखना
अब ग़ज़ल मुश्क-बार हो कि न हो

ग़ालिब अयाज़

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