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Tuesday, December 23, 2014

घर नियराया / ओम प्रभाकर

जैसे-जैसे घर नियराया।

बाहर बापू बैठे दीखे

लिए उम्र की बोझिल घड़ियाँ।

भीतर अम्माँ रोटी करतीं

लेकिन जलती नहीं लकड़ियाँ।


कैसा है यह दृश्य कटखना

मैं तन से मन तक घबराया।


दिखा तुम्हारा चेहरा ऐसे

जैसे छाया कमल-कोष की।

आँगन की देहरी पर बैठी

लिए बुनाई थालपोश की।


मेरी आँखें जुड़ी रह गईं

बोलों में सावन लहराया।
ओम प्रभाकर

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