Pages

Wednesday, December 3, 2014

कि अपनी हज़ार सूरतें निहार सकूँ / अरुणा राय

जिस समय
मैं उसे
अपना आईना बता रही थी
दरक रहा था वह
उसी वक़्त
टुकड़ों में बिखर जाने को बेताब सा
हालाँकि
उसके ज़र्रे-ज़र्रे में
मेरी ही रंगो-आब
झलक रही थी
पर मैं क्या कर सकती थी
कि वह आईना था
तो उसे बिखरना ही था
अब भी मैं उसकी आँखें हूँ
और हर ज़र्रे से
वे आँखें
मुझे ही निहार रही हैं
पर क्या कर सकती हूँ मैं
कि मैंने ही बिखेर दिया है उसे
कि अपनी हज़ार सूरतें
निहार सकूँ...

अरुणा राय

0 comments :

Post a Comment