कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में
बंदे भी हो गए हैं ख़ुदा तेरे शहर में
तू और हरीम-ए-नाज़ में पा-बस्ता-ए-हिना
हम फिर रहे हैं आबला-पा तेरे शहर में
क्या जाने क्या हुआ के परेशान हो गई
इक लहज़ा रूक गई थी सबा तेरे शहर में
कुछ दुश्मनी का ढब है न अब दोस्ती का तौर
दोनों का एक रंग हुआ तेरे शहर में
शायद तुझे ख़बर हो के ‘ख़ातिर’ था अजनबी
लोगों ने उस को लूट लिया तेरे शहर में
Wednesday, December 17, 2014
कैसी चली है अब के हवा तेरे शहर में / खातिर ग़ज़नवी
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