Pages

Friday, December 5, 2014

यकायक उसको क्या सूझा क़लम कर दी ज़बां मेरी / कांतिमोहन 'सोज़'

यकायक उसको क्या सूझा क़लम कर दी ज़बां मेरी I
उसे भी ख़ामुशी साबित हुई राहतरसां मेरी II

मिटा अब तूतियों को अंजुमों को आबशारों को
वगरना लाज़िमी सुनना पड़ेगी दास्तां मेरी I

गुलों में बुलबुलों में कोह में मौजों में दरिया में
ग़रज़ हर शै में है पिनहां हयाते-जावेदां मेरी I

ज़मीं के ज़र्रे-ज़र्रे में नुमायां है मेरा जौहर
मैं ख़ुद हैरान हूं इस दर्जा क़ूवत थी कहां मेरी I

मुझे इस हाल में करके तुम्हें कुछ तो हिजाब आया
चलो मलबूस तुमको दे गयीं उरियानियां मेरी I

मेरी शीरींबयानी से भी होती है खलिश तुमको
अभी देखी कहां है तल्ख़िए-तर्ज़े-बयां मेरी I

किसी दिन सोज़ को समझो तो शर्मिंदा न हो जाना
क़लम से अर्ज़ करने में भी कटती थी ज़बां मेरी II

कांतिमोहन 'सोज़'

0 comments :

Post a Comment