बर्तन
स्टील के भगौने पर बात रुकी हुई थी
दो बूढी औरतें कुछ पुराने बर्तनों के साथ
बाज़ार में एक विक्रेता के सामने थीं
जवानी के मजबूत बर्तन झर गए थे
चावल को खदबदाने के लिए एक पात्र तो चाहिए ही था
पीतल, तांबा, कांसा और अलुमिनियम
ये सिर्फ बर्तन न थे
वक्त-बेवक्त काम आते
किसी के इलाज में दवा बनते
तो कभी किसी मुकदमे की तारीख पर पाए जाते
जब इनमे पकने के लिए कुछ न हो
तो अन्न बनकर डबकने लगते
इन्हें गिना जाता था और
इनसे प्रतिष्ठा रहती घर की
सभ्यता में कभी चमत्कार की तरह थे
पर पुरानी सारी धातुएं मिलकर भी
स्टील के इस भगौने की बराबरी नहीं कर पा रहीं थीं
बर्तन बिखरे थे बाज़ार में अपमान की तरह
और बाज़ार ईमान जैसी अमूर्त वस्तु पर
संदेह कर रहा था
जिसका वास्ता वे बूढी औरतें लगातार दे रही थीं
बर्तनों की तरह
जैसे ईमान भी झर गया हो.
Wednesday, January 1, 2014
बर्तन / अरुण देव
Subscribe to:
Post Comments
(
Atom
)


0 comments :
Post a Comment