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Wednesday, January 1, 2014

आशा और आत्मवंचना / अनुराग अन्वेषी

ओ बाबू,
जब भी सुनती हूँ
तुम्हारी बाँसुरी पर
अपना नाम
मदमस्त हो जाती हूँ मैं ।
यक़ीन मानो
उस समय मुश्किल नहीं होता
बीच की नदी को
फलाँग कर
तुम्हारे पास पहुँचना ।

मानती हूँ
कि जीने का सलीका
तुमने सिखाया
पर बाबू
इतनी मज़बूत नहीं
कि झेल सकूँ
इतना मानसिक तनाव
इस कस्बे के लोग
तुम्हें बद मानते हैं
लेकिन तुम जानते हो
तुम्हारे बाहर
मेरी कोई दुनिया नहीं ।

बदलते रहेंगे नक्षत्र
बदलेगा मौसम
बदलेंगे लोग
बदलेगा परिवेश
पर मुझे भरोसा है
कि ख़िलाफ़ हवाओं के बीच भी
हम साथ रहेंगे
इसीलिए इस बदरंग मौसम में भी
नाचती हूँ मैं ।

अनुराग अन्वेषी

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