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Sunday, November 2, 2014

लाख चलिये सर बचाकर, फायदा कुछ भी नहीं/ कुमार विनोद

लाख चलिये सर बचाकर, फ़ायदा कुछ भी नहीं
हादसों के इस शहर का, क्या पता, कुछ भी नहीं

उस किराने की दुकाँ वाले को सहमा देखकर
मौल* मन ही मन हँसा, लेकिन कहा कुछ भी नहीं (*shopping mall)

काम पर जाते हुये मासूम बचपन की व्यथा
आँख में रोटी का सपना, और क्या कुछ भी नहीं

एक अन्जाना-सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिलाकर जिंदगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं

एक ख़ुद्दारी लिये आती है सौ-सौ मुश्किलें
रोग ये लग जाये तो इसकी दवा कुछ भी नहीं

वक़्त से पहले ही बूढ़ा हो गया हूँ दोस्तों
तेज-रफ़्तारी से अपना वास्ता कुछ भी नहीं

कुमार विनोद

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