ईंट-पत्थरों की जुबान है
ऊँचे बड़े मकानों मे
कोई चिडि़या नहीं बोलती
सूने रोशनदानों में।
कुछ छीटें मेरी यादों के
कुछ धब्बे सबके
धूप-छांह
हो जाने वाले
रिश्ते हैं अब के
आंगन वाली गंध नहीं हैं
धूप भरी
दालानों में
आंखों का पानी खोने का
भीतर खेद नहीं
शीशे की खिड़की
के बाहर
उछली गेंद नहीं
तपता-सा एहसास जेब का
उंगली की
पहचानों में
Sunday, November 2, 2014
कोई चिड़िया नहीं बोलती / अनूप अशेष
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